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कुमाउनी को सँवारने और सिखाने वाली दो महत्वपूर्ण पुस्तकें

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     (यो बीच कुमाउनी में द्वी खाश किताब सामणि ऐ रईं। ' कुमाउनी भाषा' और 'आओ कुमाउनी सीखें' । यों दुैवै किताबोंकि समीक्षा करि रै 'पहरू' कुमाउनी पत्रिका उप संपादक  ललित तुलेरा द्वारा।)   कु माउनी भाषाक ब्याकरण पर कम काम है रौ और यैकै वजैल किताब लै कम देखां भईं। य तरफ कुछेक भाषा बिज्ञानियोंल आपणि कुछेक किताबन में छुटपुट जानकारी दि रै पर कुछेक किताब ब्याकरण पर लेखी रईं जनूमें डाॅ. सुरेश पंत ज्यूकि ‘ कुमाउनी क्रियापदों की पड़ताल ’ (2018 ई.), पूरन चंद्र कांडपाल ज्यूकि ‘ कुमाउनी भाषाक ब्याकरण ’ (2020 ई.), डाॅ. जगत सिंह बिष्ट ज्यूक ‘ कुमाउनी की अस्कोटी बोली का व्याकरण ’ (2007 ई.) कुछ खास छन। कुमाउनी ब्याकरणै क्षेत्र में काम करणी बिद्वानों में कुछ खास नाम- डाॅ. भवानी दत्त उप्रेती, डाॅ. केशवदत्त रुवाली, डाॅ. त्रिलोचन पांडे, डाॅ. नारायण दत्त पालीवाल, डॉ. चंद्रशेखर पाठक, डॉ. शेर सिंह बिष्ट, डाॅ. देव सिंह पोखरिया आदि छन।       अलीबेर ‘ कुमाउनी भाषा ’ नामल डाॅ. पूरन चंद्र जोशी (लखनऊ) ज्यूकि किताब छपि रै। य किताब में चैंतीस पाठ छन जनूमें कुमाउनी भा...

पहाड़ की संघर्षशील औरतों पर बबीता बिष्ट की कविताएं-

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● चित्रकला- जगदीश पांडेय १. कई बार रह-रह के ख्याल आता है पहाड़ की औरतों का  मेरी मां, अम्मा, और चाचियों का। एक उंगली कई जगह से कटी बिना मलहम के जैसे दर्द उन्हें छूता न हो। पहाड़ों की विषमताओं को नापते  उनके कठोर बन चुके पांव,  शायद जो कभी नाजुक थे ही नहीं। उगते सूरज के साथ उनका  वनों को प्रस्थान करना दोपहर में कड़ी धूप में खिलखिलाते हुए घास और लकड़ी की गठरी के  बोझ तले वापस लौटना।  खेतों की मेढ़ों पर बैठे उनकी गप्पें पूरे पहाड़ को  किशोर बच्चे के शोर सा जीवंत कर देती है। ● २. अब शाम को पशु-पक्षी  अपने आशयाने में लौट आते हैं, वहीं सूरज को अलविदा करती वो चांद के छांव तले रसोई में जाती है किसी उद्यमी की भांति। और ले आती है अपनी स्मृतियों से  भरे आगन में सबके लिए चाय गुड़ की, पैरों की उधड़ी चमड़ी उनकी प्रबलता का तो बस एक नमूना मात्र है, उन मुस्कुराती आँखों की गहराई में छिपी विरक्तता को पहचान पाना आसान नहीं। वो पहाड़ की महिलाएं हैं  इसलिए नहीं क्योंकि वो पहाड़ में रहती हैं  बल्कि इसलिए क्योंकि वह पहाड़ सा बोझ उठात...