पहाड़ की संघर्षशील औरतों पर बबीता बिष्ट की कविताएं-
१.
कई बार रह-रह के ख्याल आता है
पहाड़ की औरतों का
मेरी मां, अम्मा, और चाचियों का।
एक उंगली कई जगह से कटी
बिना मलहम के जैसे दर्द उन्हें छूता न हो।
पहाड़ों की विषमताओं को नापते
उनके कठोर बन चुके पांव,
शायद जो कभी नाजुक थे ही नहीं।
उगते सूरज के साथ उनका
वनों को प्रस्थान करना
दोपहर में कड़ी धूप में खिलखिलाते हुए
घास और लकड़ी की गठरी के
बोझ तले वापस लौटना।
खेतों की मेढ़ों पर बैठे उनकी गप्पें पूरे पहाड़ को
किशोर बच्चे के शोर सा जीवंत कर देती है। ●
२.
अब शाम को पशु-पक्षी
अपने आशयाने में लौट आते हैं,
वहीं सूरज को अलविदा करती
वो चांद के छांव तले रसोई में जाती है
किसी उद्यमी की भांति।
और ले आती है अपनी स्मृतियों से
भरे आगन में सबके लिए चाय गुड़ की,
पैरों की उधड़ी चमड़ी उनकी प्रबलता का तो
बस एक नमूना मात्र है,
उन मुस्कुराती आँखों की गहराई में छिपी
विरक्तता को पहचान पाना आसान नहीं।
वो पहाड़ की महिलाएं हैं
इसलिए नहीं क्योंकि वो पहाड़ में रहती हैं
बल्कि इसलिए क्योंकि वह पहाड़ सा बोझ उठाती हैं
कभी कंधे पर, कभी पीठ पर, कभी सर पर तो कभी मन पर,
कम उम्र में झुररियां आना उनके विषम अनुभवों
और अटूट धैर्य की रेखाओं से परे नहीं। ●
३.
विपरीत परिस्थितियों में
वन, बागवानों, खेत-खलियानों को सींचती
पहाड़ की औरतें अक्सर उन पेड़ों और फसलों को
घुटने नहीं देती, स्वयं सा बना ही देती है व्यस्क उन्हें भी।
उन सर्पिली नदियों और रास्तों को
उनका स्पर्श करना उन प्राकृतिक बनावटों को भी
लंबे सफर के लिए शुभकामनाएँ देता है।
वे पहाड़ की औरतें हैं जिनके कर्मशील अंतरमन से
प्रेम और सौंदर्य यूँ छलकता है बस लगे
जी लूं उस छांव में कुछ पल।
उनकी कहानियां विरासत होती हैं
उनकी अगली पीढ़ियों को श्रम में बांधने के लिए
ताकि वह फिर जीवित रह सके उन श्रमशील किस्सो में,
पहाड़ के हर कोने में, हर ऊंचाई, हर तलहटी में।
सच में पहाड़ की औरतें खुद पहाड़ है,
पहाड़ में समाई, पहाड़ों को समेटे हुए,
पहाड़ के कष्टों, पीड़ाओं और विषमताओं को
दर्शाती जीवंत प्रतिमा। ●
पता- ग्रा.- सुराग (गरूड़), जिला- बागेश्वर
(उत्तराखंड)
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