पहाड़ी जिला बागेश्वर के सलखन्यारी गांव में 'तुलेरा' कहां से आए ?
ललित तुलेरा
बागेश्वर (उत्तराखंड)
ई मेल- tulera.lalit@gmail.com
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मानवीय स्वभाव घुमंतु रहा है। इसके प्रमाण हमें इतिहास कें पन्नों में मिल जाते हैं। कुछ मानव पृथ्वी के एक भूभाग से हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके दूसरे भूभाग में बसे हैं तो कुछ सिर्फ कुछ किलोमीटर के फासले में। इन पलायनों के कतिपय कारण रहे हैं।
इधर सवाल है ‘तुलेरा’ सलखन्यारी (बागेश्वर) में कहा से?
इस सवाल का जबाब तथ्यों व प्रमाण के आधार पर दे पाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि शायद ही इसका कोई प्रमाण उपलब्ध है। इस संबधं में गांव के बुजुर्गों के पास यही एक किस्सा है-
उत्तराखंड राज्य के वर्तमान गढ़वाल मंडल के चमोली जिले में उलंग्रा नामक गांव में दो भाई रहते थे। उनकी उम्र अभी बहुत अधिक न थी। दोनों अभी नौजवान थे। एक दिन दोनों का आपस में विवाद हो गया। मामला झगड़ा तक बढ़ गया और एक भाई ने दूसरे को गांव से ही बेदखल कर दिया। बेदखल हुआ भाई गांव को छोड़ने का इरादा बनाकर वर्तमान कुमाऊं की ओर बढ़ा। बोलने में उसकी जीभ अटकती थी। जिस कारण वह स्पश्ट बोल नहीं पाता था। कुमाऊं की ओर बढ़ते हुए वह वर्तमान गरूड़ ब्लाॅक बागेश्वर) के 'पय्या' नामक गांव में पहुंचा। यहां फस्र्वाण जाति के लोग निवास करते थे। उन्होंने इस भाई को अपने मवेशियों के ग्वाले के लिए अपने गांव में रख लिया। वह दिनभर जानवरों का ग्वाला जाता, उनको चराता। जब उसकी उम्र बढ़ने लगी। गांव वालों ने निर्णय लिया की अब उसकी शादी कर देनी चाहिए। गांव की ही अपनी फस्र्वाण की किसी सीधी- साधी, जीभ लगने के कारण स्पश्ट न बोल पान वाली बेटी से उसकी शादी करा दी।
गांव वालों ने अपनी बेटी को दहेज में कुछ जमीन दी। वह अब गांव में ही घरजवाई बनकर रहने लगा था। यह दंपत्ती वह कुछ सालों तक इसी पय्यां गांव में रहे। कुछ सालों बाद वे दोनों वहां से पलायन करके किसी निर्जन पहाड़ी पर आ बसे। यहां उनके साथ उनके मवेशी थे। उन्होनें जमीन काट कर खेत बनाने शुरू कर दिए। ( कुछ बंधु बताते हैं कि यहां ग्राम अमस्यारी कें पंडितों के खेत थे) उनकी दिनचर्या कृषि के कामों में कटती। व्यवसाय कृषि और पशुपालन था। समय बीता, इस दंपत्ती के सात बेटे हुए। जिनके नाम क्रमशः हैं- लछम सिंह , अमर सिंह, धरम सिंह, रूप सिंह, माधो सिंह, सबल सिंह और काम सिंह। इन पुत्रों का विवाह होने पर परिवार बढ़ गया। सात बेटों में रूप सिंह को संतान प्राप्ति न हुई और काम सिंह की अल्पायु में मृत्यु हो गई। पांच बेटों का ही वंशबेल आगे बढ़ा। देखते- ही देखते गांव ही बस गया। यही गांव ‘सलखन्यारी' के रूप में जाना जाने लगा। धीरे- धीरे ये भाई आस- पास के छोटे गांवों में भी बसने शुरू हो गए। वहीं अपने-अपने परिवार के साथ रहने लगे। ये आस पास के गांव थे सिमगढ़ी, नौगांव, बूंगा आदि। सलखन्यारी के निकट सिरानी गांव तुलेरा जाति ने बसाया। वहां 19 परिवार सिर्फ ‘तुलेरा’ ही रहते हैं।
चमोली (उलंग्रा) से आया यह भाई रतन सिंह तुलेरा था। जिसकी शादी पय्यां गांव के फर्स्वाण की बेटी हिरूली से हुआ। उन्हीं की वंशबेल सलखन्यारी में निवास कर रही है। वहीं दूसरी ओर गढ़वाल के चमोली जिले में ‘उलंग्रा’ गांव में रह रहे उसके भाई देव सिंह तुलेरा का भी वंश वहीं ‘उलंग्रा’ गांव में आगे बढ़ा है।
यह बता पाना मुश्किल है कि तुलेरा उलंग्रा में कहां से आए? यहां प्रष्न यह भी है कि उलंग्रा से रतन सिंह कुमाऊं की ओर किस सन् में आया होगा? इसके जबाब के लिए मुझे यही तरकीब सुझी कि अगर एक पिता और पुत्र की आयु के बीच का अंतराल अनुमामित 30 वश मान लें तो वर्तमान में सलखन्यारी में तुलेराओं की आठवीं पीढ़ी शुरू हो चुकी है। 8x30 = 24 (240) यानी करीब 200 साल पहले आए हो सकते हैं।
देश को आजादी मिलने के बाद से सलखन्यारी से कुछ ‘तुलेरा’ शहरों की ओर हल्द्वानी, भाबर, दिल्ली को पलायन कर चुके हैं।
( 'तुलेरा, मध्य हिमालय की एक जाति' आठ पीढ़ी की वंशावली किताब से साभार)
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