नई पीढ़ी की कुमाउनी कविताओं का दस्तावेज है 'जो य गड. बगि रै' किताब
समीक्षा-
रमेश पांडे 'कृषक', बागेश्वर
ललित तुलेरा नौजवान पीढ़ी का सिर्फ उभरता हुआ कवि ही नहीं है बल्कि कुमाउनी भाषा और कुमाउनी साहित्य की समझ से लबालब ललित नौजवानों के बीच कुमाऊनी भाषा और साहित्य को अधिक रुचिकर तरीके से परोसते हुए नव सृजन के कार्यों में भी समर्पित है।
वर्ष 2021 में ललित ने एक छोटे से लेकिन बेहतरीन प्रयास के माध्यम से 15 से 25 वर्ष उम्र के नौजवानों की रचनाओं का एक संकलन जो य गड. बगि रै शीर्षक से कुमाउनी भाषा के कविता संग्रह के रूप में समाज को सौंपा है।
भास्कर भौर्याल, दीप चंद आर्या, भारती जोशी, दीपक सिंह भाकुनी, गायत्री पैंतोला, हिमानी डसीला, कविता फर्त्याल, ममता रावत, मनोज सोराड़ी, रोहित जोशी, कमल किशोर कांडपाल, भावना जुकरिया, प्रकाश पांडे, पीयूष धामी, पूजा रजवार, ज्योति भट्ट और स्वयं ललित तुलेरा का संक्षिप्त पारिवारिक और सैक्षणिक परिचय देते हुए इनकी लिखी हुई करीब छह दर्जन छोटी-छोटी कविताएं इस संकलन में समेटी गई हैं।
इस संकलन में अधिकतर नौजवान कवियों ने हिमालय, हिमालय की पर्वत श्रृंखला, पर्वत श्रृंखलाओं में बसे गांव, गांव की भूगोल, भूगोल में बहती नदिया, उड़ते कलरव करते पंछी, बरसात, धारे, नौले, पानी, जंगल, आरण्यक मनोहरता, गांव, गांवों के जनजीवन को अपनी कविताओं में उकेरने का प्रयास किया है।
किताब की पहली कविता के रूप में भास्कर भौर्याल की लिखी हिमालकि काखी को स्थान मिला है। हिमालकि काखी के अलावा भास्कर की 3 अन्य कविताओं पहाड़कि सैणक हाल, किलै नि सोचि और इजुली को किताब में स्थान मिला है। किलै नि सोचि में भास्कर ने जंगलों की आग और आग से होने वाले नुकसान को तो समझने का प्रयास किया है लेकिन आग की असल वजह और वजहों के पीछे के प्रबंधन को आकने में भास्कर थोड़ा ठहरे हुए दिखते हैं।
प्रदीप चंद्र आर्या की 4 छोटी-छोटी कविताओं को आश भिटौलिक, अब गों गों नी रै ग्याय, अपण मनकि बात और म्यर गौं सुकलि को स्थान दिया गया है । प्रदीप ने कुमाऊं में चैत के महीने को भिटौली के रूप में मनाए जाने को उकरने का प्रयास किया है लेकिन बहुत कम शब्दों में। इसी बात को दीपक थोड़ा और विस्तार देते हुए और अधिक रोचक तरीके से प्रस्तुत कर सकते थे। अपनी दूसरी कविता में प्रदीप गांव में आ रहे बदलाव को लेकर चिंतित है उसकी चिंता एक छोटे से अंतराल में आ रहे बदलाव को लेकर है अपनी ही तीसरी कविता में प्रदीप गांव की यादों की खूबसूरती को बताने प्रयास करते हैं कि कैसे उसका बचपन उन सुंदर परिवेश में बीता । यादों के सहारे प्रदीप कविता को आगे बढ़ाने का प्रयास तो करते है लेकिन गुंजाइस के बावजूद बहुत जल्दी जाकर कविता को समाप्त कर देते है।
भारती जोशी की तीन कविताएं किताब में स्थान मिला है। पहली कविता मी तुमरी चेलि गर्भ में ही हो रही हत्याओं को केन्द्र में रख् कर लिखने का प्रयास तो करती है पर उस आक्रांष के साथ नहीं जो आक्रोश समाज में और अधिक असर डालने के लिए जरूरी हो सकता था। भारती की दूसरी कविता फोन शीर्षक से है। इस कविता में भारती मनुष्य के अंतर्मुखी हो जाने की चिंता करती हैं। अपनी तीसरी कविता में भारती गांव के समन्वयात्मक स्वरूप को छूती तो हैं पर कविता को शुरू करने के साथ ही वह कविता को खत्म करने पर आमादा हो जाती हैं।
दीपक सिंह भाकुनी की पांच कविताओं को किताब में स्थान मिला है। पहली कविता में दीपक प्रकृति की सुंदरता और उसकी पारिस्थितिकी से अचंभित होने की अवस्था में डूबते हुए प्रतीत होते हैं तो दूसरी कविता में समाज में संबोधन शब्दों और वाक्यों में आ रहे बदलावों से परेशान दिखते हैं और बोल ही देते है कि देखो कैसा बखत आ गया कि चीजें अटपटे रूप में बदल रही है। तीसरी चौथी और पांचवी कविता उसके प्रकृति प्रेम और प्रेम में प्रकृति को समझने और निहारने को दर्शाती है। दीपक प्रकृति को प्रकृति की सुंदरता को उसके आवरण को उसकी बुनावट और बनावट को अनुभव करता प्रतीत है।
किताब में गायत्री पेंतोला की पांच कविताओं को स्थान मिला है। गायत्री अपनी पहली कविता में पहाड़ी समाज के भोलेपन और सहज सरल व्यवहार के चारों ओर घूमती नजर आती हैं तो दूसरी कविता में वह अपने बाल जीवन की गहराइयों में खोई हुई दिखती हैं, तीसरी कविता में गांव की बहू और बेटियों को छूने का प्रयास करती हैं तो चौथी कविता में पहाड़ के झोड़ा, चाचरी, शकुन आंखर, आरतियां, भजन, जैसे उत्सवों और त्यौहारों के गीतों को याद करती दिखती है तो पांचवी कविता में वह मैत की यादों में खो जाती हैं।
हिमानी डसीला की तीन कविताएं किताब में है। पहली कविता में हिमानी अल्मोड़ा के सांस्कृतिक स्वरूप और अल्मोड़ा के बैभव को बताने का प्रयास करती हैं तो दूसरी कविता मैं गांव और शहरों में आ रहे बदलाव को छूने का प्रयास करती हैं। तीसरी कविता में व्यंग के सहारे विकास और नेताजी को सामने लाने का प्रयास उन्होंने किया है।
कविता फर्त्याल की चार कविताएं किताब में मिलती है। कविता अपनी चौथी कविता में पहाड़ में शराब के कहर को दर्शाने का पूरा प्रयास तो किया है लेकिन निवेदन के साथ। होने को तो कविता ने भी अन्य कवियों की तरह पहाड़ को अपने नजरिए से देखने का प्रयास किया है लेकिन जल्द बाजी में कविताओं को खत्म करने की जुगुत नहीं की है साथ ही भाषा को सरल बनाने का प्रयास भी किया है।
ममता रावत की 5 छोटी-छोटी कविताएं पुस्तक में मिलती हैं पहली कविता में वह गांव के अंदर बंदरों लंगूर सूअरों अन्य वन्य पशुओं के आतंक और उस आतंकी वजह से चौपट हो रही खेती को दर्शाने का प्रयास करती हैं वह यह भी बताने का प्रयास करती हैं कि यही आतंक गांव में पलायन की मुख्य वजह है। दूसरी कविता में ममता गांव के उन नौजवानों को याद करती दिखती है जो फौजी हो गए हैं और देश की शान बनकर देश के बॉर्डरों में ड्यूटी दे रहे हैं। अपनी तीसरी कविता में कविता फिर गांव के पलायन पर चिंतित दिखती हैं, अपनी चौथी कविता में कविता बाल मन में मोबाइल की चाहत को दिखाने का प्रयास करती हैं तो पांचवी कविता में बालवाड़ी में खिलाए जाने वाले खेलों में खो जाती हैं।
मनोज सोराड़ी की तीन कविताएं किताब में है पहली कविता में को ईजा का वर्णन तो करते हैं पर नया पन नहीं मिलता, मनोज अपनी दूसरी कविता में बोली भाषा को ही जुबान देने की कोशिश करते हैं।
रोहित जोशी की भी पांच कविताएं किताब में डाली गई हैं। अपनी पहली कविता में मां के उन संदेशों को सामने लाते हैं जिन संदेशों में मा अपने बच्चों को सबके साथ मिलजुल कर रहने को प्रेरित करती हैं और घर के सम्मान को बचाए रखने की नसीहत देती हैं। रोहित अपनी दूसरी कविता में अन्य कवियों की तरह गांव में आ रहे बदलावों से चिंतित दिखते हैं और याद करते हैं अपने उन दिनों को जो उन्होंने गांव में अनुभव किए होते हैं। अपनी तीसरी कविता में रोहित भी गांव के समन्वयात्मक स्वरूप को सामने लाने का प्रयास करते हैं चौथी कविता में वे शराब न पीने का संदेश देते हुए दिखाई देते हैं तो पाचवी कविता उनकी थोड़ा हटकर है जो कोरोना पर लिखी गई है।
कमल किशोर कांडपाल की भी पांच कविताएं किताब में मिलती है। कमल अपनी पहली कविता में पहाड़ में आ रहे बदलावों की चिंता इस उम्मीद के साथ करते हैं कि ये बदलाव ऐसे ही नहीं रहेंगे। उनकी दूसरी कविता पलायन को दर्शाती है कि अपने हिस्से का सब कुछ छोड़ कर नंदू भावर चला गया है। कविता में कांडपाल गांव की दुर्दशा और नौजवानों के वर्तमान को उकेरने का प्रयास तो करते हैं लेकिन भटकते हुए, चौथी और पांचवीं कविता तक पहुंचते-पहुंचते कांडपाल इश्क में गोते लगाते दिखते हैं मोबाइल को माध्यम बनाकर।
भावना जुकरिया की दो कविताओं को स्थान दिया गया है पहली कविता फौज के सिपाही का वर्णन करती है और दूसरी कविता अपने बचपन के दिनों को याद करती प्रतीत होती है।
प्रकाश पांडे जो अपने नाम के आगे 'पप्पू पहाड़ी' भी लिखते हैं की तीन कविताएं किताब में पढ़ने को मिल रही है पप्पू ने कविताओं को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास भी किया है। अपनी पहली ही कविता में पप्पू प्रवासियों को संदेश देखते देखते हैं और उस संदेश के माध्यम से गांव की व्यवस्था संस्कृति और सरोकारों को उकेर जाते हैं। अपनी दूसरी कविता में पहाड़ की आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक रीड के रूप में स्थापित नारी को पहाड़ की ब्वारी के रूप में सामने लाते हैं। प्रकाश की तीसरी कविता बहुत अधिक मार्मिक कविता है। कहने में कोई दिक्कत नहीं हो रही कि इस कविता को संपादक ने वह सम्मान नहीं दिया जिस सम्मान की हकदार यह कविता थी। अपनी इस कविता में कवि ने उस शहीद नौजवान बेटे को दर्शाया है जो शहीद होकर लकड़ी के बक्से में बंद करके घर तक पहुंचाया गया है। शहीद के रूप में घर पहुंचे पुत्र के शरीर को देख मां कहती है मेरा बेटा बक्से में लेट के घर आया है।
पियूष धामी की 3 कविताएं जागो रे, कुंभ और बिकास को स्थान दिया गया है। कविताएं बहुत छोटी हैं। शुरुआती दौर की कविताएं हैं जिसमें कवि जो कहना चाहता है उसको अभिव्यक्त नहीं कर पाता।
पूजा रजवार की चार कविताएं किताब में हैं। पहली कविता चैत के महीने और भिटौली पर केंद्रित है दूसरी कविता में रजवार ने उन बेटियों के दर्द को समेटने का प्रयास किया है जो विवाह के बाद परिवार से इतना दूर हो जाती हैं कि परिवार के सुख दुख में भी परिवार के पास नहीं पहुंच पाती अपनी तीसरी कविता में पूजा अपने बचपन को याद करती हैं तो चौथी कविता चौमासे की याद पर केंद्रित है ।
ज्योति भट्ट की तीनों कविताओं को किताब में स्थान मिला है। यदि यह कहा जाए कि ज्योति में कविता के प्रति परिपक्वता स्पष्टता के साथ है तो दो राय नहीं होगी। ज्योति अपनी कविताओं में पात्रों की बहुत अधिक नजदीक दिखाई देती है यही उनकी परिपक्वता भी है।
ललित तुलेरा 'जो य गंग बगि रै' कविता संग्रह के संकलन कर्ता तथा सम्पादक भी हैं ने अपनी सात लघु कविताओं को स्थान दिया है। पहली कविता- दिगौ लाली, दूसरी- धाद, तीसरी- उ, चौथी- पछ्याण , पांचवी- जिंदगी में , छटी- आंख उघाड़ो और सातवीं- मैं और मै।
ललित की कविताओं में पहाड़ के प्रति चिंता के साथ आशा खुलकर सामने आते ही हैं साथ ही मीठा गुस्सा भी परिलक्षित होता है, जैसे-
पहरुवो!
कां गेछा रे?
किलै बुज री आंख?
किलै फरकै रौ मुख?
ललित की कविताएं उम्मीद भरी कविताएं हैं जो इस किताब में उतारी गई हैं।
किताब की साज सज्जा खूबसूरत है बहुत अधिक भारी किताब भी नहीं है लाइब्रेरी या बैठक में रखी गई यह किताब अपने रंग रूप से बैठक में या लाइब्रेरी में निखार ही लाएगी।
किताब के शुरुआती 15 पेज किताब की सामग्री की समीक्षा में लिखे गए हैं। संपादक की हैसियत से ललित ने विस्तार से अपनी बात को कहा है तो डॉक्टर सरस्वती कोहली, दामोदर जोशी, डॉ चंद्र प्रकाश फुलेरिया, डॉ पवनेश ठकुराठी ने किताब को अपने अपने तरीके से देखने जानने और परखने का प्रयास किया है जो काफी महत्वपूर्ण है।
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