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'मृग मरीचिका' कहानी संग्रह किताब का विमोचन

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अल्मोड़ा।  'हरेला इनोवेशन' संस्था के तत्वावधान में सहायक विकास अधिकारी (पंचायत) से सेवानिवृत्त  रतन सिंह बंगारी का कहानी संग्रह ' मृग मरीचिका ' का शहर के प्रतिष्ठान 'बैठक' में विमोचन किया गया। 'मृग मरीचिका' किताब पर समीक्षात्मक व्याख्यान देते हुए डॉ. गजेन्द्र बटोही ने कहा कि रतन सिंंह बंगारी कृत 'मृग मरीचिका' में लिखित कहानियां मध्य हिमालय के पहाड़ी समाज की अभिव्यक्ति हैं और पहाड़ का सामाजिक जनजीवन  इन कहानियों में दृष्टिगोचर होता है। रतन सिंह बंगारी ने कहा कि उनकी पृष्ठभूमि लेखन से जुड़ी नहीं रही परंतु यह कहानी संग्रह लिखित अभिव्यक्ति के रूप में उनका पहला प्रयास है। उन्होंने कहा कि कहानियां लिखने का उनका प्रेरक जीवन का संघर्ष और समाज रहा है।  सेवा निवृत्त शिक्षिका नीलम नेगी ने कहा कि साहित्य मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और आधुनिक युग में हमें साहित्य के महत्व को समझना होगा तथा युवा पीढ़ी को सोशल मीडिया से इतर साहित्य को अपने जीवन से जोड़े रखना चाहिए।  अध्यक्षीय भाषण में साहित्यकार त्रिभुवन गिरि ने कहा कि 'मृग मरीचिका...

हिंदी कविताएं : ललित तुलेरा (भाग-२)

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पिताजी का लीसे का गमला हाथ की लकीरें तो हो गई हैं ध्वस्त ऐसिड और लीसे से, पर  हाथ की लकीरें   चीड़ के पेड़ों पर  बना दिए हैं पिताजी ने।  उन लकीरें से निकलता है लीसा, लकीरों से होकर लीसा कील में टंगे गमले में पहुंचता है, जैसे पिताजी पहुंचते हैं घर से तैयार होकर  *लिसुवा की ड्रैस में रोज अपने लीसे के गमले के पास। लीसे का गमला भरता है कई दिनों बाद पर उससे पहले उसे बचाए रखना होगा राहगीरों से, जंगल के जानवरों से आंधी से और आग से। कई बार  गर्मीयों में आग पहुंच जाती है घर के सामने पहाड़ी पर चीड़ के जंगल में पिताजी के लीसा कंपार्टमेंट में तब गमले के जल जाने के डर से रात को नींद नहीं आ पाती लीसे के गमले का बचना जरूरी है कनस्तर को भरने के लिए लीसा भरा कनस्तर का बचना जरूरी है  परिवार के लिए लीसे का गमला  टंगा है आज भी चीड़ के पेड़ पर  लकीरों से लीसा भर रहा है  पिताजी के लीसे के गमले में। *लिसुवा- मूल कुमाउनी शब्द 'लिसू' से बना है। जिसका मतलब है- लिसा निकालने वाला वाला श्रमिक)  ●●● छत टपकती है चातुर्मास में मेरे घर ...

बढ़ती मानव आबादी से धरती को खतरा तो नहीं? हम कितने सजग हैं इस ओर : विश्व जनसंख्या दिवस २०२३

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●  ललित तुलेरा ई.मेल- tulera.lalit@gmail.com      ध रती में मनखियकि बिकास यात्रा में कएक मोड़ आईं। एक बखत छी जब मनखी जङव में अलग-अलग समुदाय में रूंछी। आस्ते-आस्ते उ शहरों में रूण लागौ, जां आबादी लै बढ़ते रै। जब मनखियल जनगणना करनकि तरकीब खोजो तो धरती में मनखियोंकि संख्याक लै जानकारी मिलण लागै। एक बखत छी जब धरती में मनखीयोंकि संख्या एक अरब है लै कम छी। वांई आज धरती में मनखियोंकि गिन्ती आठ अरब है बेर मलि पुजि गे। इतनि ठुलि आबादी हमुकैं कएक समस्या लै ठा्ड़ करनै। 1987 में जब दुनियकि आबादी 5 अरब भै तो बढ़ते जनसंख्याक चिंता कैं देखि बेर साल 1989 में ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम‘ कि ‘गवर्निंग काउंसिल‘ ल 11 जुलाई हुणि ‘विश्व जनसंख्या दिवस‘ क तौर पर मनूणक फैसाल ल्हे। यैकै अघिल साल 1990 में पैंल बार दुनियांक 90 देशन में ‘विश्व जनसंख्या दिवस‘ मनाई गो। तब बै ‘विश्व जनसंख्या दिवस‘ हर बरस 11 जुलाई हुं मनाई जां।          धरती में मनखियोंक संख्या में इजाफा हुण हमुकैं खुशी दिंछ पर वांई उरातार बढ़न लागी लोगनकि संख्या हमर भविष्यक लिजी अभिशाप लै बणि गे। यैल जां पर...